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रवीश कुमार का प्राइम टाइम : हमारी व्‍यवस्‍था इस गटर से बाहर कब निकलेगी?

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न्यूज़ देखना अब टिक टॉक देखने जैसा हो गया है. पूरा समाज और सिस्टम अपना केरिकेचर बन गए हैं. यानी ख़ुद का मज़ाक बन गए हैं. उन्नाव में जेल में पार्टी हो रही है तो लुधियाना की जेल में गोली चल रही है. सीआरपीएफ बुलानी पड़ती है. एक बंदा आता है जो रिवाल्वर ताने दिखता है, लेकिन उसे शायरी भी आती है. वो शायरी भी सुनाता है. व्हाट्सएप शायरी जिसके झांसे में बड़े बड़े लोग आ जाते हैं. सब कुछ का वीडियो मिल जाता है. तुरंत का नहीं मिलता है तो एक महीने बाद मिल जाता है. जैसे ही ये सब गुज़रता है योग की खूबियों पर प्रधानमंत्री का भाषण आ जाता है. जैसे लगता है कि अब सब ठीक हो जाएगा, एक विधायक बल्ला लेकर आ जाता है और किसी को मारने लगता है. हम समझने की कोशिश छोड़ देते हैं. खटा खट एक वीडियो लेते हैं और उस पर फेसबुक पर कुछ लिख देते हैं. लिखने के लिए हाहाकार या सत्कार पक्ष चुन लेते हैं. इससे फ्री होते ही सीसीटीवी का फुटेज चल जाता है कि फरीदाबाद में मेडिकल की छात्रा को एक लड़का चाकू से मार रहा है. छात्रा से छेड़छाड़ की कोशिश हो रही थी. लड़की की हालत गंभीर है. अभी ये वीडियो ठीक से देखा नहीं कि आंखों के सामने किसी ने ये क्लिपिंग भेज दी. बाड़मेर की एक मां है जो एक एक कर अपनी पांच बेटियों को कुएं में फेंक देती है. फिर खुद भी कुएं में कूद कर मर जाती है. हमारा समाज बेटियों को मारने की मानसिकता रचने वाला समाज है. लेकिन अगर बेटियां किसी खेल में कोई कप जीत लें तो समाज खुश भी होता है. बेटियों पर गर्व करता है.



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