प्रकाशित: अप्रैल 14, 2015 09:00 PM IST | अवधि: 44:52
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हमने सार्वजनिक माध्यमों में अंबेडकर की मौजूदगी को इतना कृत्रिम और अवसरवादी राजनीतिक बना दिया है कि भूल जाते हैं कि बाबा साहब को याद करते हुए कोई रो भी देता है, कोई हंस भी देता है और कोई शुक्रगुज़ार हो नारे लगाने लगता है, जैसे उनकी ज़िंदगी में कोई दूत आ गया हो। लोक उत्सव में अंबेडकर या अंबेडकर का लोकरूप तो कहीं नहीं दिखता। क्यों नहीं दिखता, इसी सवाल का जवाब ढूंढता प्राइम टाइम...