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रवीश कुमार का प्राइम टाइम : क्या दिल्ली दंगों को आतंकी साज़िश बता कर विरोधियों को फ़िक्स किया जा रहा है?

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आलोक धन्वा की एक कविता है भागी हुई लड़कियां. इस कविता की याद यूं ही नहीं आयी है. सरकार की संस्थाए जब बाप की भूमिका में आ जाए तब लड़कों को लड़कियों के लिए यह कविता पढ़नी चाहिए. मंच न मिले तो ऑनलाइन, ऑनलाइन न मिले तो ऑफलाइन...अगर एक लड़की भागती है तो यह हमेशा जरूरी नहीं है कि कोई लड़का भी भागा होगा. कई दूसरे जीवन प्रसंग हैं जिनके साथ वह जा सकती है, कुछ भी कर सकती है, महज जन्म देना ही स्त्री होना नहीं है, तुम्हारे उस टैंक जैसे बंद और मजबूत, घर से बाहर, लड़कियां काफी बदल चुकी हैं, मैं तुम्हें यह इजाजत नहीं दूंगा कि तुम उसकी सम्भावना की भी तस्करी करो. वह कहीं भी हो सकती है, गिर सकती है बिखर सकती है, लेकिन वह खुद शामिल होगी सब में, गलतियां भी खुद ही करेगी, सब कुछ देखेगी शुरू से अंत तक, अपना अंत भी देखती हुई जाएगी, किसी दूसरे की मृत्यु नहीं मरेगी. भागी हुई लड़कियां कविता लड़कियों को भगाने के लिए नहीं लिखी गयी थी. लेकिन आज के दौर में अगर लड़कियां किसी आंदोलन का हिस्सा हैं तो उनके ऊपर कई तरह के दवाब हैं. यह बात सिर्फ अमूल्या पर देशद्रोह के केस की नहीं है या फिर सफूरा जरगर की नहीं है.



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